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वाक्यों के बीच
शब्दों की आड़ में
रहता हूँ मैं
अल्पविराम बनकर
जानता हूँ
मेरे आखेट को
निकले हैं शिकारी
इसलिए बहुत होशियारी से
छिप जाता हूँ
अर्थों की गुफाओं में
कभी प के पेट में
तो कभी क की
टेंट में
गुम हो जाता हूँ मैं
झुके हुए अक्षरों से
भरोसा दिलाता हूँ
वफादार होने का
मेरी विनम्रता जताता है
खाली स्थान
कभी-कभी
खड़ी पाई की तरह
तनकर खड़ा हो जाता हूँ मैं
हालाँकि ये भी एक मुद्रा है
मेरी आत्मरक्षा की
हर क्षण
छापामार युद्ध में रत
अपने ही कथ्य में
घुसपैठिया हूँ मैं।
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